:::::अतीत:::::
जब भी अकेला होता हूँ
दिमाग मे एक खयाल सा चुभ जाता है
मेरे अतीत का वो घना अंधेरा
नजाने मेरे आजपर क्यू छा जाता है
ये मेरे कर्मों की सजा है या नसीब का लिखा है
कभी लगता है इसमे कुदरत की मर्जी होगी
अंधेरे से डरकर कभी खोना नही चाहता मेरे वजुद की रोशनी
वरना अतीत की लडाई मे मेरी आज की मौजुदगी फर्जी होगी
कभी विचारों के पत्थरों को आपस मे टकराकर
झांकना चाहता हूँ जहन के अंदर एक आग जलाकर
ये कौनसी उलझन है, कौनसा सवाल है, ये क्या मंजर है?
क्यु मेरे वजुद को मिटाने के लिये मेरे अतीत के हाथों मे खंजर है
जमाना गुजर गया जमाने की अदालत मे जमानत मिलते मिलते
अब मेरा आज मेरे अतीत के कठघरे मे बंद है
लाख कोशिशे करले मेरा अतीत मुझे मिटाने की
पर मेरे मुस्तकबिल के हातों तय इसका अंत है
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